19.5.10

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफरके हम हैं




અહીં મુકેલ મોટા ભાગની ગઝલો
urdupoetry.com અને
 aligarians.com
પરથી લીધી છે.
અલબત્ત,ત્યાં આ ગઝલો
english સ્ક્રીપ્ટ માં મુકેલ હોવાથી
 મેં એને હિન્દી માં ફેરવી અહીં મૂકી છે,
અને એટલેજ સ્પેલિંગ /જોડણી માં ભૂલ હોઈ શકે છે.
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निदा फाज़ली

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफरके हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घरमें किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदीयों तक
किसको मालूम कहाँके हैं किधरके हम हैं

चलते रहते हैं के चलना है मुसाफ़िरका नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में भी गिने जाते हैं हर दौरमें हम
हर क़लमकार की बेनाम खबरके हम हैं

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गुलज़ार

खुश्बू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में

जाने किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में

शाम के साये बालिश्तों से नापे हैं
चाँदने कितनी देर लगा दी आनेमें

रात गुज़रते शायद थोडा वक़्त लगे
ज़रा सी धुप उंडेल मेरे पैमाने में

दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता हूँ वीराने में

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एहमद फराज़

कठिन है राहगुजर थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कडा है सफ़र , थोड़ी दूर साथ चलो

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ चलता है
मैं जानता हूँ मगर, थोड़ी दूर साथ चलो

नशेमें चूर हूँ में भी तुम्हें भी होश नहीँ
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

ये एक शब की मुलाकात भी गनीमत है
किसे हैं कल की खबर, थोड़ी दूर साथ चलो

अभी तो जाग रहे हैं चिराग राहों के
अभी है दूर सहर, थोड़ी दूर साथ चलो
(sahar : dawn)

तवाफे-मंज़िले- जानां हमें भी करना है
"फराज़" तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो

(tavaaf-e-manzil-e-jaanaaN :
circumabulation of the house of beloved)

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एहमद फराज़

हर कोई दिलकी हथेली पे है सेहरा रख्खे
किसे सैराब करे वोकिसे प्यासा रख्खे
(sairaab : satisfy)

उम्रभर कौन निभाता है ताल्लुक इतना
ऐ मेरी जानके दुश्मन तुजे अल्ला रख्खे

मुजको अच्छा नहीँ लगता कोई हमनाम तेरा
कोई तुजसा हो तो फिर नाम भी तुजसा रख्खे

दिलभी पागल है के उस सख्श से वाबस्ता है
जो किसी और का होने दे ना अपना रख्खे
(vaabastaa : attached)
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निदा फाज़ली

हर घड़ी खुद से उलज़ना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझीमें है समन्दर मेरा

किस से पूछूं के कहाँ गुम हूँ बरसोंसे
हर घड़ी ढूंढता फिरता है मुज़े घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आंखोसे कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गई ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींदमें बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथमें महफूस है पत्थर मेरा

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एहमद फराज़

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे के आते जाते
(maraasim : relationship)

शिकवा-ए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते
(shikvaa-e-zulmat-e-shab :
lamenting about the darkness of the night)

कितना आसां था तेरे हिज्रमें मरना जानाँ
फिरभी एक उम्र लगी जानसे जाते जाते

जश्न-ए-मक्तल ही ना बरपा हुआ वरना हमभी
पा-बजोलां ही सही नाचते गाते जाते
(jashn-e-maqtal :
celebration at gallows;
paa-bajolaaN : chained)

उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था के न था
तुम "फ़राज़" अपनी तरफसे तो निभाते जाते

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निदा फाज़ली

सफ़र में धुप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

इधर उधर कई मंज़िलें हैं चल सको तो चलो
बने बनाए हैं सांचे जो ढल सको तो चलो

किसीके वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आपको खुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसीको कोई रास्ता नहीं देता
मुज़े गिरा के अगर तुम सम्भल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनोंसे तुम भी बहल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफाज़तों की रवायत बदल सको तो चलो
hifaazato.n kii rivaayat badal sako to chalo

कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

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निदा फाज़ली

तुम ये कैसे जुदा हो गए
हर तरफ हर जगह हो गए

अपना चेहरा न बदला गया
आईना से ख़फा हो गए

जाने वाले गए भी कहाँ
चाँद सुरज घटा हो गए

बेवफ़ा तो ना वो थे ना हम
यूँ हुआ बस के जुदा हो गए

आदमी बनना आसां न था
शेखजी खुदा हो गए

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ताहिर फ़राज़

खुदको पढ़ता हूँ , छोड़ देता हूँ
एक वर्क रोज़ मोड देता हूँ

(varq : page)

इस कदर ज़ख्म हैं निगाहोंमें
रोज़ एक आईना तोड़ देता हूँ

मैं पुजारी बरसते फुलोंका
छू के शाखोंको छोड़ देता हूँ

कास-- शब में खून सूरज का
कतरा  कतरा निचोड़ देता हूँ
(kaasa-e-shab : begging bowl of the night)

रेत के घर बना बना के "फराज़"
जाने क्यों खुद ही तोड़ देता हूँ

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निदा फाज़ली

जब किसीसे कोई गीला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना

घरकी तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोनेकी जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घरमें कहीं खुदा रखना

मिलना जुलना जहां ज़रूरी हो
मिलने-जुल्नेका हौसला रखना

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